दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 ने भारतीय राजनीति में एक बड़ा मोड़ ला दिया। तीन लगातार वर्षों तक राजधानी में राज करने वाले आम आदमी पार्टी (एएपी) के प्रमुख चेहरे, अर्जुन केजरीवाल और उनके करीबी सहयोगी मनिष सिसोदिया ने अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में हार का सामना किया। इस बार भाजपा ने 70 में से 48 सीटें जीतकर 27 साल बाद फिर से दिल्ली पर काबिज़ हो गया।
वोटिंग 5 फरवरी को हुई और परिणाम 8 फरवरी को घोषित किए गए। नव दिल्ली की सीट में केजरीवाल ने 25,999 वोटों के साथ 30,088 वोटों से जीतने वाले पारवेश साहिब सिंह (भाजपा) को हराया, अंतर 4,089 वोट रहा। यह केजरीवाल के लिए पहली बार है कि वे अपने ही निर्वाचन क्षेत्र में नहीं जीत पाए।
मनिष सिसोदिया, जो पूर्व उपमुख्यमंत्री और दल के प्रमुख रणनीतिकार थे, को भी अपना सीट खोना पड़ा। उनके अलावा कई वरिष्ठ एएपी मंत्री – सद्येंद्र कुमार जैन (शासन और सामाजिक कल्याण), सॉमनाथ भारती (उत्सव एवं संस्कृति), सौरभ भारद्वाज (शिक्षा), राखी बिर्ला (स्वास्थ्य), और दुरगेश पाठक (युवा कार्य) – सभी ने मतों का भरोसा नहीं जीत पाए।
भाजपा ने इन हारों को अपने दावे के साथ जोड़कर कहा कि यह दिल्ली की जनता की बदलती प्राथमिकताओं का प्रमाण है। उनके पक्ष में जल कमी, गैस आपूर्ति, और शिक्षा सुधार जैसे मुद्दों को बड़े पैमाने पर उठाया गया। एएपी के समर्थकों ने अब तक के आधे दशक के प्रदर्शन‑आधारित शासन को सराहा, परन्तु कई बार उन्होंने सार्वजनिक सेवाओं में देरी और भ्रष्टाचार के आरोप भी लगाए।
भाजपा ने शालिमार बाग की विधायक रेखा गुप्ता को 19 फरवरी को दिल्ली के नए मुख्यमंत्री के रूप में घोषित किया। यह घोषणा एएपी के लिए एक बड़ा झटका है, क्योंकि अब उन्हें नई रणनीति बनानी पड़ेगी – चाहे वह नई गठजोड़ हो या भिन्न नीति‑पैकेज। कांग्रेस ने इस दौर में कोई सीट नहीं जीती, 67 में से 70 उम्मीदवारों ने अपनी जमा रक़म लौटा ली, जिससे पार्टी की थ्रेशोल्ड कमज़ोर दिखी।
एक बार एएपी की प्रमुख नीतियों में मुफ्त शिक्षा, स्वास्थ्य बीमा, और जल आपूर्ति शामिल थे। अब भाजपा इन क्षेत्रों में अपने बिंदु पेश करने की तैयारी में है, जिससे शहरी और धान्य‑प्रमुख बुनियादी ढांचा पुनः व्यवस्थित किया जा सकता है। साथ ही, दलित और मुस्लिम समुदाय में एएपी की पकड़ अब भी कुछ हद तक बनी हुई है, जहाँ उन्होंने कुछ सीटें सुरक्षित रखीं। यह दर्शाता है कि आगामी वर्ष में दिल्ली के सामाजिक‑सांस्कृतिक समीकरण में नया संतुलन बन सकता है।
साथ ही, चुनाव में मतदाता टर्नआउट लगभग 61% रहा, जो पिछले चुनावों की तुलना में थोड़ा कम था। इस कारण कई क्षेत्रों में मतों की गतिशीलता स्पष्ट हुई – जहाँ पूर्व एएपी समर्थक हुए, वहीं भाजपा ने अपने पैर की नाखून तक पहुंच बना ली। इस बदलाव को समझने के लिये राजनीति विश्लेषकों को अब से एएपी के नीतियों के दीर्घकालिक प्रभाव, भाजपा के प्रचार‑प्रसार, और दिल्ली की जनसंख्या के बदलते स्वरूप को गहराई से देखना पड़ेगा।
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