21 सितंबर 2025 की रात दो अत्यधिक महत्वपूर्ण कैलेंडर घटनाएँ एक साथ घटित होंगी। सौर ग्रहण के साथ ही सरव पितृ अमावस्या, अर्थात् पितृ पक्ष का अंतिम अमावस्या, सितम्बर की इस रात में मिल रहा है। यह संगम लगभग 122 साल में पहली बार हो रहा है, इसलिए हिन्दू धर्मावलम्बियों ने इसे विशेष पुण्य‑समय के रूप में पहचाना है।
ग्रहण की शुरुआत 21 सितंबर को रात 10:59 वेजा (IST) से होगी और 22 सितंबर को 3:23 वेजा तक जारी रहेगा। ग्रहण का चरम बिंदु 1:11 वेजा के करीब पहुंचेगा, जब सूर्य के लगभग 85 प्रतिशत भाग को जलन के कारण ढका देखा जायेगा। इस अवधि में सूर्य का प्रकाश बहुत मंद हो जाता है, जिससे कई आध्यात्मिक मान्यताएँ भी सक्रिय हो जाती हैं।
दुर्भाग्यवश इस ग्रहण को भारत में देखना संभव नहीं है। यह मुख्यतः दक्षिणी गोलार्ध के समुद्री क्षेत्रों में, न्यू ज़ीलैंड के दक्षिण में, अंटार्कटिका, दक्षिणी प्रशांत महासागर और ऑस्ट्रेलिया के दक्षिणी हिस्सों में स्पष्ट रूप से दिखाई देगा। इसलिए भारतीय श्रद्धालु इस ग्रहण को प्रत्यक्ष देख नहीं सकते, परन्तु आध्यात्मिक लाभ के लिए इस अवसर को महत्व दिया जा रहा है।
इतिहास में इस तरह का मिलन बहुत ही दुर्लभ रहा है। पिछली बार 1903 की अगस्त में ऐसा ग्रहण‑अमावस्या का संगम हुआ था, जिसका उल्लेख वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों में मिलता है। तब भी पितृ पक्ष के अंतिम दिन एक विशेष रात्रि अनुष्ठान किया गया था। इस प्रकार 2025 का संगम न केवल खगोल विज्ञान में बल्कि धार्मिक परम्पराओं में भी एक नई दहलीज़ खोलता है।
सरव पितृ अमावस्या, जिसे महालय अमावस्या भी कहा जाता है, पितृ पक्ष के 16 दिनों का समापन दर्शाता है। इस साल पितृ पक्ष की शुरुआत 7 सितंबर को हुई थी, वही दिन एक रक्तचंद्र ग्रहण (लूनर ईकलिप्स) भी हुआ था। अब इस पावन अवधि को सौर ग्रहण द्वारा समाप्त किया जा रहा है, जिससे दो जन्मदिवसों के बीच का अंतराल आध्यात्मिक रूप में एक पूरक चक्र बन गया है। शास्त्रों के अनुसार, इस तरह के संगम में किए गये तर्पण, दान और प्रार्थनाएँ सामान्य समय की तुलना में कई गुणा अधिक फलदायी मानी जाती हैं।
ऐसे क्षण में किया गया तर्पण (जल अर्पण) न केवल पितरों की शांति को प्राप्त करता है, बल्कि वंशजों के लिये भी सुख‑समृद्धि का कारण बनता है। विद्वानों का मानना है कि इस अवधि में किया गया दान, विशेषकर ब्राह्मणों को दिया गया सत्कार, बहु‑पीढ़ी तक लाभ पहुंचाता है। इसलिए इस दुर्लभ अवसर को नज़रअंदाज़ न करने की सलाह दी जा रही है।
वहीं ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रहण के समय नकारात्मक ऊर्जा का संचार अधिक होता है। ग्रहण के दौरान प्राकृतिक संतुलन में गड़बड़ी होने की मान्यता है, जिससे मन, शरीर और परमात्मा के बीच असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। इस कारण कई धार्मिक ग्रंथ इस समय मंदिरों में प्रवेश या विशेष पूजा करने से बचने की सलाह देते हैं, क्योंकि ऐसी क्रियाएँ अनजाने में नकारात्मक प्रभाव ला सकती हैं। परन्तु यदि इस समय के बाद उचित शुद्धिकरण और वैदिक विधियों का पालन किया जाये, तो दुष्प्रभाव को न्यूनतम किया जा सकता है।
ग्रहण के दौरान और उसके तुरंत बाद करने योग्य अनुष्ठानों को दो चरणों में बाँटा जा सकता है – ग्रहण‑समय के लिये सावधानी, और ग्रहण‑समाप्ति के बाद के लिये सक्रिय अनुष्ठान। रात के अँधेरे में पितृ शोक को साकार करने के लिये अनिवार्य है कि श्रद्धालु अपने मन को स्थिर रखें, शांति एवं धैर्य बनाये रखें और कोई भी अशुभ कार्य न करें। यह समय आत्मनिरीक्षण और आत्मा की गहरी शुद्धि का है।
तर्पण की विधि विशेष रूप से दिलचस्प है। एक पवित्र कंटेनर में शुद्ध जल भरें, उसमें काले तिल के तीन दाने डालें और सात बार ‘ॐ पितर्याणां नमः’ का जाप करते हुए जल को पितरों की ओर अर्पित करें। यह प्रक्रिया पूरी श्रद्धा के साथ करनी चाहिए, क्योंकि माना जाता है कि इस समय किए गये तर्पण के फल अत्यधिक गुणी होते हैं।
मंत्रजाप में निरन्तरता बहुत मानी जाती है। जप माला का प्रयोग करके ‘पितर्य” मंत्र को 108 बार दोहराया जा सकता है। यदि संभव हो तो इस जप को गरज वाले रात्री शब्बत (संभवतः 21 सितंबर की मध्यरात्रि) में किया जाये तो अधिक लाभ होता है। साथ ही, पितरों के नाम का उल्लेख करते हुए व्यक्तिगत स्मृति-चित्र (फोटो) या उनका आवरण के साथ जल अर्पित करना भी शुभ माना जाता है।
दान के लिए विशेष रूप से उन लोगों को प्राथमिकता देनी चाहिए जो आर्थिक रूप से असहाय हैं। भोजन, कपड़े, दाल, दालान या साधारण रूप से नकद सहायता प्रदान करके पितरों की आत्मा को संतुष्ट करने का लक्षा प्राप्त किया जा सकता है। यह दान सूर्य के ग्रहण के बाद 30 मिनट से लेकर 1 घंटे के भीतर दिया जाये तो उसकी मनोकामना पूरी होती है, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है।
शुद्धिकरण के लिए ग्रहण के दौरान बाहरी कार्यों से बचना चाहिए। खिड़कियाँ बंद रखें, झाड़ू-पूछा जैसी सफ़ाई उपेक्षित रखें, तथा रात में खाने-पीने की वस्तुएँ कच्ची न रखें। ग्रहण समाप्त होते ही स्नान कर, हल्का शाकाहारी भोजन करें, और फिर अनुष्ठानों को आगे बढ़ाएँ। यह क्रम नकारात्मक प्रभावों को हटाने में मदद करता है।
रात्रि के इन अनुष्ठानों के अलावा, श्रद्धालुओं को लगातार प्रार्थना और मनन में लिप्त रहना चाहिए। बहु‑मिनटल जप, पितर्य मंत्र का निरन्तर दोहराव और मूलभूत शांति प्रसाद की पुकार करनी चाहिए। साथ ही इस रात को सामाजिक कार्यों के लिये भी उपयोग किया जा सकता है – दाने दान, अनाथालय में भोजन वितरित करना, तथा जरूरतमंदों को कपड़े देना। इस प्रकार की दया कार्य पितरों की शांति को दोगुना कर देते हैं।
एक और महत्वपूर्ण पहलू नवरात्रि का आगमन है। सूर्य ग्रहण के बाद ही 22 सितंबर से नवरात्रि शुरू होगी, जो कि माँ दुर्गा के नौ दिनों के उपवास एवं पूजा का समय है। इस क्रम में पितृ पक्ष का समाप्त होना और नवरात्रि की शुरुआत एक आध्यात्मिक पुल बनाती है। यानी पितरों को शांति देने के बाद सीधे माँ के चरणों में सामर्थ्य लेना। यह स्थानांतरण ऐसी संवेदना को जगाता है कि पितर्य शोक का शुद्धिकरण दैवी शक्ति के आशीर्वाद से और भी समृद्ध हो जाता है।
विलक्षण बात यह है कि नवरात्रि के पहले दिन (वज्र व्रत) में पितर्य को स्मरण किया जा सकता है, और अगली शाम को माँ के स्वरुप की पूजा के साथ ही पितर्य के पूजन में समाप्त किया जा सकता है। इस प्रकार, श्रद्धालु दो बड़े धार्मिक कार्यों को आपस में जोड़कर एक ही रात्रि में शारीरिक व आध्यात्मिक शोधन कर सकते हैं। यह संयोग 122 साल में पहली बार आया है—इसको नज़रअंदाज़ न करने की सलाह सैकड़ों धार्मिक विद्वानों ने दी है।
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